घास-फूस खावै पसू, छतां सतावै काम। लाडू-पेड़ा नित भरवै, वां रो रक्षक राम।।
घास-फूस खावै पसू, छतां सतावै काम। लाडू-पेड़ा नित भरवै, वां रो रक्षक राम।।
MARWARI KAHAWATE
MARWARI PATHSHALA
10/27/20241 min read
घास-फूस खावै पसू, छतां सतावै काम।
लाडू-पेड़ा नित भरवै, वां रो रक्षक राम।।
पशु तो घास-फूस जैसा सात्विक खाना खाते हैं फिर भी उनको काम वासना सताती है। मनुष्य जो नित्य लडडू पेड़े इत्याद माल मसाला- पकवान खाते है, उनका तो फिर राम ही रक्षक है। उसकी वासना कैसे रूकेगी?
यमुना नदी के किनारे एक नगरी आयी हुई थी, उसका राजा बुद्धिमान और प्रजापालक था। इसके साथ ही वह बड़ा दानी और साधु-संतों का भक्त था। इस कारण दूर-दूर से उसके राज्य में एक से बढकर एक साधु महात्मा आते रहते थे। राजा उनका खूब आदर सम्मान करता और उनकी सेवा भी करता। एक बार एक बड़ा तपस्वी उसके राज्य में आया। राजधानी के बाहर की ओर एक बड़ा शिव मंदिर आया हुआ था।वह इस क्षेत्र का प्रसिद्ध तीर्थ था। विशाल शिवालय, चारों ओर सुंदर बगीचा,जिसमें भांति भांति के पेड़ थे। बड़ी बड़ी धर्मशालाएं थी, जहां सभी प्रकार की सुविधाएं थी। सन्यासी का मन यहां रम गया और चौमासा कर लिया। संन्यासी तपस्वी होने के साथ ज्ञानी और विद्वान भी था। अत: रोज ज्ञान चर्चा होने लगी। लोग बाग संन्यासी के उपदेश से बहुत प्रभावित हुए। धीरे धीरे उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी। परिणाम स्वरूप दूर दूर से लोग उनके उपदेश सुनने आने लगे।महात्मा के ज्ञान की सुगंध फैलती फैलती राजा तक पहुंची। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और अपने लवाजमे के साथ महात्माजी की सेवा में पहुंचा। आपस में ज्ञान की चर्चा हुई। अब राजा नियमित रूप से मंदिर जाने लगा। वह महात्माजी के उपदेशों और ज्ञान चर्चा से इतना प्रभावित हुआ कि उनको अपना गुरू बना लिया। जब चौमासा पूरा हो गया तो राजा ने महात्माजी को राजमहल में पधारने के लिए निवेदन किया। महात्माजी ने राजा का निवेदन स्वीकार कर लिया और एक दिन राजा के दरबार में पहुंचे। राजा ने उनका बड़ा सम्मान किया और राजमहल में मनचाहे दिन तक विराजने की प्रार्थना की। राजमहल से जुड़ा हुआ ही एक बगीचा था। राजा उस बगीचे में महात्मा जी के ठहरने की व्यवस्था कर दी और निजी रसोड़े से भोजन का प्रबंध कर दिया। रसोड़दार को हुकम दिया कि जैसा भोजन का थाल मेरे लिए तैयार होता है, ठीक वैसा ही महात्माजी के लिए पहुंचना चाहिए।महात्माजी ने ऐसे भोजन के लिए रसोडदार को मना किया, लेकिन राजा के हुकम के बिना व्यवस्था को बदलना हाथ की बात नहीं थी। इस प्रकार कई दिन बीत गए। राजा की रूचि सत्संग में बढती गई। इसके साथ ही निरंतर पौष्टिक भोजनसे उनके स्वास्थ्य में भी सुधार होता नजर आया। एक बार महात्माजी के व्याख्यान में खान पान का कोई प्रसंग आया। सभा में राजा भी स्वयं मौजूद था। भोजन की चरचा करते हुए महात्माजी ने उदाहरण स्वरूप उपर्युक्त दोहा कहा और साथ ही यह कहा कि ज्ञानी पुरूष को सदैव साविक भोजन ही करना चाहिए।
राजा के मन में यह बात बराबर बैठ गई। वह विचार करने लगा कि घास फूस खाने वाले जानवरों को भी काम वासना सताती है तो फिर लडडू पेडे खाने वाले मनुष्य का तो कहना ही या। बात तो महात्माजी ने सच कही है, लेकिन यह बात स्वयं महात्माजी पर लागू क्यों नहीं होती? मनुष्य शरीर तो सभी का एक समान होता है। भले ही गृहस्थ होवे या संन्यासी। राजा ने इस बात पर खूब विचार किया, लेकिन बात सुलझी नहीं। आखिर हिम्मत करके राजा ने एक दिन महात्माजी से पूछ ली। राजा की बात सुनकर महात्माजी पहले तो थोड़ा मुस्कराएं और फिर बोले कि राजन, तुहारी यह शंका उचित और स्वाभाविक है। मैं इस बात से जरा भी नाराज नहीं हूं कि तुहारे मन में यह शंका क्यों पैदा हुई? इससे तुम्हारी जिज्ञासा प्रवृति और निष्कपट व्यवहार प्रकट होता है। लेकिन मैं तुम्हारी शंका का समाधान थोड़ी देर से करूंगा। इतना कहकर महात्माजी ध्यान की मुद्रा में बैठ गए और राजा उनके चेहरे की ओर देखते रहे। थोड़ी देर बाद महात्माजी की पलकें खुली और राजा की ओर देखते हुए बोले कि राजन, तुम्हारी बात का उत्तर मैं कल एक घडी दिन चढने पर देना चाहता हूं, इससे पहले नहीं। लेकिन इस काम में एक बडी अडचन आ रही है। राजा ने जल्दबाजी से पूछा कि वह क्या? राजा से महात्मा कहने लगे कि अब या बताऊं राजन्। कहे जैसी बात नहीं है। राजा के मन में बडी जिज्ञासा पैदा हुई। पूछने लगा कि ऐसी क्या बात है महात्माजी? जो भी है कह दीजिए। महात्माजी बोले कि राजन, अभी मैंने ध्यान लगा कर रह बात जानने की कोशिश की कि तुहारे मन में यह शंका क्योँ पैदा हुई। कहीं मेरे चरित्र या व्यवहार में तो कोई कमी नहीं है? ध्यान के माध्यम से मुझे आत्मज्ञान हुआ कि ऐसी कोई बात नहीं है। तुमने तो यह प्रश्न सहज जिज्ञासा के वश किया है। मैं तुम्हें इसका उत्तर कल एक घडी दिन चढे देना चाहता हूं, लेकिन महात्माजी अटकते -अटकते धीमे स्वर में बोले कि लेकिन कल एक घडी दिन चढने पर तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। इसलिए तुम वह उतर सुन नहीं पाओगे। महात्माजी के वचनों पर राजा का पूर्ण विश्वास था। जब महात्माजी के मुंह से अपनी मृत्यु की बात सुनी तो राजा के तो होश ही उड़ गए। वह सोचने लगा कि कल मैं जिंदा नहीं रहूंगा, मर जाऊंगा? राजा का तो मस्तिष्क क्या करू, क्या न करूं में अचानक उलझ गया। मृत्यु का डर तो सभी को समान रूप से सताता है, भले ही राजा होवो या रंक।
महात्माजी ने उससे कहा कि मैं आपको यह बात नहीं कहना चाहता था,लेकिन आपके विशेष आग्रह ने मुझे कहने पर मजबूर कर दिया, इसलिए मुझे कहनी पड़ी। खैर, आपकी मृत्यु टालनी किसी के हाथ की बात नहीं है। लेकिन आपकी बात का जवाब थोड़ा जल्दी देना तो मेरे हाथ में है। अत आपकी मृत्यु से पहले वह जवाब आपको मिल जाएगा। राजा उदासन मन से किसी प्रकार लडख़ड़ाता हुआ अपने महल को पहुंचा। भोजन के समय थाल परोसा जाकर उसके सामने आया तो एक टुकड़ा भी रोटी का खाने को मन नहीं हुआ। गाना बजाना और आमोद प्रमोद कुछ भी अच्छा नहीं लगा। उसने सब बंद करवा दिए। रानियां और दासियां सभी हैरान। किसी की हिम्मत नहीं पड़ी। आखिर पटरानी ने हिम्मत की और उसने पूछा, लेकिन राजा ने उसको काई जवाब नहीं दिया। बात को टाल दिया। रात हुई तो राजा सो गया लेकिन सारी रात करवटें बदलते हुए बीती न तो सोने पर चैन मिलता और न ही बैठने पर। रात जैसे द्रौपदी के चीर बन गई। ऐसी दुखभरी और डरावनी रात राजा के जीवन में कभी नहीं आई। जैसे तैसे सुबह हुई। राजमहल में मंगल ध्वनि बजने लगी। मृत्यु की घड़ी में राजा को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मृत्यु की घड़ी के पास जानकर राजा कोऔर कुछ भी नहीं सूझ रहा था। थोड़ा सा दिन चढा तो महात्माजी स्वयं राजा के महल में पधारे। उन्होंने राजा से पूछा कि कहिए राजन। रात को सुख शांति से बीती राजा में तो मृत्यु का डर समाया हुआ था। वह कहने लगा कि महात्मन्, कौन सा सुख और कौनसी शांति? जब मृत्यु की घड़ी सामने आ जाती है तो कुछ भी नहीं सूझता है। तब तो केवल मृत्यु ही याद रहती है। महात्माजी तब जोर से हंसे और बोले कि आप निश्चिंत रहें राजन। आपकी मृत्यु अभी बहुत दूर है। केवल आपकी शंका के समाधान करने के लिए मैंने आपको मृत्यु की बात कही थी। जो मनुष्य हर समय यह बात याद रखता है कि आखिर तो एक दिन जाना है, तो काम वासना आदि विकार उसके मन में नहीं आता है। मैं मृत्यु को एक पल भी नहीं भूलता हूं। इसलिए पौष्टिक भोजन भी मेरे शरीर में कोई विकार पैदा नहीं कर सकता है। अब तो तुम्हें अनुभव हो गया होगा। राजा ने महात्मा जी के चरण पकड़ लिए। उन्हें महात्मा जी का उत्तर अच्छी तरह समझ में आ गया। साथ ही राजा को इस बात की खुशी हुई कि मेरी मृत्यु अभी बहुत दूर है।