सीख सरीरां ऊपजै, दीयां आवै दोस। मूरख हित समझै नहीं, उळटो मानै रोस।।
सीख सरीरां ऊपजै, दीयां आवै दोस। मूरख हित समझै नहीं, उळटो मानै रोस।।
MARWARI KAHAWATE
MARWARI PATHSHALA
10/27/20241 min read
सीख सरीरां ऊपजै, दीयां आवै दोस।
मूरख हित समझै नहीं, उळटो मानै रोस।।
अर्थ - सीख तो मनुष्य के शरीर में स्वत: उत्पन होती है, किसी को सीख देने पर तो उल्टा जैसे दोष ही लगता है। कारण, जो मूर्ख होता है वह अपना हित तो समझता नहीं,उल्टा रूष्ट और क्रोधित हो जाता है। बोलने वाले की ही हानि होती है।
एक राजकुमार ने अपने पिता की मृत्यु के बाद एक दिन अपने बुद्धिमान मंत्री से कहा कि आप मुझे कोई सीख दीजिए और मेरे दोष बतलाइए। मंत्री ने काफी सोच विचार कर कहा कि कम बोलने में बड़ी भलाई है। बोलने वाला मारा जाता है। उसने मन में सोचा कि राजकुमार को अवगुण नहीं कहूंगा। कहने से मुझे नुकसान ही होगा। हित की कहने और सुनने वाला बहुत थोड़े होते हैं, क्योंकि मन को सुहाने वाली मुश्किल से मिलता है।
इस तरह मंत्री ने अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी अच्छी सीख दी, लेकिन राजकुमार को इससे संतोष न हुआ। राजकुमार को इस बात की उम्मीद थी कि मंत्री सीख के साथ उसके अवगुण न बताकर उसके गुण बतलाएगा और कहेगा कि आप में और अवगुण! आप तो प्रत्यक्ष गुणनिधि हैं। आप में ये गुण है आप में वो गुण है, आप सर्व गुण संपन्न है। मंत्री बुद्धिमान था, लेकिन खुशामदी नहीं था।
एक दिन राजकुमार मंत्री को साथ लेकर शिकार को गया। दिन भर हैरान होकर भी कोई शिकार हाथ न आया। सांझ होने पर लौटते समय झाडी में एक तीतर बोला। राजकुमार ने आवाज के अंदाज पर तीर चलाया, तीतर ढेर हो गया। तब मंत्री बोला कि ये मूर्ख नहीं बोलता तो, नहीं मारा जाता।
अतः आज के समय में कम बोलना और मूर्ख को सीख न देने में ही भलाई है। वरना कभी भी लेने के देने पड़ सकते है। अकल हिये उपजे डीडा लागे डाम। दुसरो की दी हुई सीख डामर की तरह जलती है, सीख़ - अकल हमेशा अपने से ही उपजती हुई अच्छी लगती है।
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